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चीनी उत्‍पादों का भारतीयों पर जादू

अनिल निगम
आज हर भारतीय के जीवन में चीनी उत्‍पाद की खास अहमियत बन चुकी है। इन उत्‍पादों ने हमारी दिनचर्या में प्रवेश कर लिया है। चीनी उत्‍पाद हमारे किचन से लेकर बेड रूम और ऑफिस से लेकर पूजा घर तक घुस चुके हैं। सस्‍ते और आकर्षक होने के चलते चीनी उत्‍पादों का जादू भारतीयों के सिर चढ़कर बोलता रहा है। त्‍योहारी मौसम शुरू होते ही बाजार में चीनी उत्‍पादों की एक बार फिर भरमार बढ़ गई है। निस्‍संदेह, चीनी उत्‍पादों ने सर्वाधिक नुकसान भारतीय आर्थिक व्‍यवस्‍था को पहुंचाया है। सवाल यह है कि क्‍या चीनी उत्‍पादों को भारतीय बाजार में आने से नहीं रोका जा सकता? भारत सरकार की ऐसी क्‍या मजबूरी है कि वह इसे नहीं रोक पा रही?

भारत और चीन के बीच 2018-19 में करीब 88 अरब डॉलर का व्‍यापार रहा है। यहां महत्‍वपूर्ण बात यह है कि भारत, चीन के साथ पहली बार व्यापार घाटा 10 अरब डॉलर तक कम करने में सफल रहा है। हालांकि भारत का व्यापार घाटा लगभग 52 अरब डॉलर रहा। कई वर्षों से चीन के साथ लगातार छलांगें लगाकर बढ़ता हुआ व्यापार घाटा भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया था। चीन के बाजार तक भारत की अधिक पहुंच और अमेरिका और चीन के बीच चल रहे मौजूदा व्यापार युद्ध के कारण पिछले वर्ष भारत से चीन को निर्यात बढ़कर 18 अरब डॉलर पहुंच गया, जबकि वर्ष 2017-18 में यह 13 अरब डॉलर था। चीन से भारत का आयात भी 76 अरब डॉलर से कम होकर 70 अरब डॉलर रह गया। भारत के साथ चीन के कुटिल कूटनीतिक संबंधों के चलते भारत में समय-समय पर चीनी उत्‍पादों के विरोध में माहौल बनता रहा है। स्‍वदेशी के समर्थकों का मानना है कि अगर हमें भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देना है तो चीनी उत्‍पादों का प्रवेश भारत में पूरी तरह से बंद कर देना चाहिए। लोगों का भी मानना है कि भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि चीनी उत्‍पादों का बहिष्‍कार किया जाए।
यहां विचारणीय प्रश्‍न यह है कि चीनी उत्‍पाद भारतीयों को ज्‍यादा क्‍यों भाता है और वह भारतीय उत्‍पाद की तुलना में अधिक सस्‍ता क्‍यों होता है? चीन में मैन्‍यूफैक्‍चर होने वाले उत्‍पाद की लागत बहुत कम होती है। वहां पर श्रम सस्‍ता है और सरकार ने मैन्‍यूफैक्‍चरिंग सेक्‍टर को भारी सब्‍सिडी दे रखी है, जबकि भारत में श्रम महंगा है और मैन्‍यूफक्‍चरिंग पर ऐसी कोई सब्‍सिडी की सुविधा नहीं है। यही कारण है कि भारतीय उत्‍पाद चीन की तुलना में महंगा पड़ता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में आज भी 37 करोड़ से अधिक लोग गरीब हैं। इसके अलावा करोड़ों लोगों का जीवन स्‍तर बहुत सामान्‍य है। इसलिए सस्‍ते चीनी उत्‍पाद उनकी पहुंच में हैं और वे उन्‍हें आसानी से खरीद लेते हैं।
ध्‍यान देने की बात यह है कि चीन ज्‍यादातर वैल्‍यू एडीशन वाली चीजें जैसे मोबाइल फोन, प्‍लास्‍टिक, इलेक्‍ट्रिकल्‍स, मशीनरी और अन्‍य उपकरण भारत को निर्यात करता है। जबकि भारत चीन को कच्‍चा माल जैसे कॉटन और खनिज ईंधन का निर्यात करता है। यह सच है चीन अपने मोबाइल फोन का सबसे अधिक निर्यात भारत को करता है। आखिर ऐसे क्‍या कारण हैं और सरकार की क्‍या मजबूरी है कि वह चीनी उत्‍पादों को भारत में पूरी तरह से बंद नहीं कर सकती? सबसे पहले तो आपको बता दें कि भारत के हाथ विश्‍व व्‍यापार संगठन यानि डब्‍ल्‍यूटीओ के नियमों से बंधे हैं। यह संगठन किसी भी देश के आयात पर भारी भरकम प्रतिबंध लगाने से रोकता है। वर्ष 2016 में राज्‍यसभा में एक सवाल के जवाब में तत्‍कालीन वाणिज्‍य मंत्री निर्मला सीतारमण ने खुद कहा था कि भारत डब्‍ल्‍यूटीओ के नियमों की वजह से चीनी वस्‍तुओं पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता। ऐसे में औद्योगिक संगठनों का मानना है कि उद्योगों को खास सहूलियत देनी चाहिए ताकि भारतीय उत्‍पादों की लागत को कम किया जा सके। मेरा मानना है कि अगर भारतीय उत्‍पादों को चीनी उत्‍पादों से मुकाबला करना है तो उसके लिए सरकार और देश की जनता को मिलकर काम करना होगा। यह बात पूरी तरह से स्‍पष्‍ट है कि भारत चीन के उत्‍पादों पर पूरी तरह से प्रतिबंध नहीं लगा सकता, लेकिन अगर वह भारतीय उद्योगों को समुचित सुविधाएं मुहैया कराता है और कच्‍चे माल से लेकर करों तक में तार्किक तरीके से बदलाव करता है तो इससे भारतीय उद्योग को आत्‍मनिर्भर बनने में मदद मिलेगी। इसके अलावा आयात और निर्यात में बढ़ रहे असंतुलन को खत्‍म करने का सार्थक प्रयास करना होगा अन्‍यथा चीनी उत्‍पादों का बहिष्‍कार का राग अलापना लकीर को पीटने जैसा ही साबित होगा।
(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार है)

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